लोकवार्ता की दृष्टि से इस विषय की पड़ताल करने के लिए देखें तो हमें कश्मीर के प्राचीन आख्यान से बात शुरू करनी पड़ेगी । कश्मीर की रानी यशोवती के राज्यारोहण के अवसर पर श्रीकृष्ण ने कश्मीर की धरती को 'पार्वती' और कश्मीर नरेश को 'हर का अंश' कहा है,इस किंवदंती को कल्हण ने 'राजतरंगिणी' के पहले ही तरंग में उद्धृत किया है।
इससे भी प्राचीन एक उपाख्यान हमें 'नीलमतपुराण' में मिलता है जिसमें कश्मीर भूखंड के जन्म की कथा वर्णित है।इसे कश्मीर का आदि उपाख्यान कह सकते हैं।इसके अनुसार वर्तमान कश्मीर कल्प के प्रारम्भ से छ: मन्वंतरों तक 'सतीसर' नाम का एक विशाल सरोवर था। सतीसर अर्थात् शिव पत्नी सती का सरोवर । वासुदेवशरण अग्रवाल के शब्दों में कहें तो ''इस तरह जो स्थान देवत्व प्राप्त कर लेते हैं वे जन की भावनाओं के साथ अंतरंग रूप से जुड़ जाते हैं।'' (भारत की मौलिक एकता,पृ. 54)
लोक मान्यताओं की दृष्टि से देखें तो कश्मीर के रेशे- रेशे में शिव और शक्ति की चेतना की मौजूदगी है। यहाँ की नदी वितस्ता को सती का अवतार कहा गया है : "सती देवी नदी भूत्वा कश्मीरायां विनिर्गता।" इतना ही नहीं, जो उमा है वही कश्मीरा है : 'यैव उमा सैव कश्मीरा"। ‘वितस्ता महात्म्य’ इस दृष्टि से उलेखनीय है।
हिमालय को कालिदास ने देवतात्मा कहा है और कश्मीर इसी हिमालय का एक प्राँगण है जहाँ शिव अधिष्ठाता देव हैं और शक्ति अधिष्ठात्री देवी। इसीलिए यहाँ देवी देवताओं में सर्वाधिक तीर्थस्थल शिव या शक्ति से सम्बंधित मिलते हैं।
कल्हण की राजतरंगिणी में अनेक राजाओं,उनकी रानियों और मंत्रियों द्वारा बनवाए गए शिव मंदिरों ।प्रचुर प्रसंग मिलते हैं ।कश्मीर के बहुत कम राजा वैष्णव हुए हैं ।अधिकांश राजा शैव थे । डाॅ रघुनाथ सिंह शिव तथा शैव दर्शन को कश्मीर के जीवन की आत्मा मानते हैं।
।। शैवदर्शन का उद्गम स्थान ।।
यह बात सही है कि 'कश्मीर शैव दर्शन' का जो विकसित रूप आज हमारे सामने है वो आठवीं -नवमी शताब्दी के आसपास का है।परंतु शिव की आराधना -अर्चना की परंपरा कश्मीर में प्राचीनकालिक है। नीलमतपुराण में पिशाचों, दैत्यों के अलावा नाग जाति और उनकी धार्मिक आस्थाओं ,तीज-त्यौहारों की धुरी में भी हमें शिव ही दिखते हैं । कहीं लोकदेवता के अवैदिक रूप में तो कहीं महादेव के रूप में ।
भला ऐसी कौन सी जगह है कश्मीर में,कौन सी पर्वत चोटी है या वितस्ता नदी का कौन सा घाट है जहाँ शिव का तीर्थ नहीं ,देवालय नहीं , शिव से जुड़ी आस्था नहीं,किंवदंती या कोई प्रथा नहीं! हरमुकुट गंगा अर्थात् हरमुख पर्वत ,अमरीश्वर उर्फ स्वामी अमरनाथ, महादेव गिरि ,ध्यानीश्वर,हरीश्वर,सुरेश्वर,कपटेश्वर,गंगाजटन आदि अनेक स्थलों से संबंधित उपाख्यान हैं जो उनके महात्म्यों में वर्णित हैं।
कल्हण की राजतरंगिणी हमें संकेत देती है कि कश्मीर में शिव की पारंपरिक पूजा पद्धति लोक प्रचलन में मगध नरेश महाराज अशोक से भी पुरानी है और कश्मीर आकर महाराज अशोक ने जलौक नामक पुत्ररत्न के लिए भूतेश ( हरमुख दामन में ) की तपस्या की थी ।
जहाँ तक महाराजा अशोक के पूर्ववर्ती कश्मीर में प्रचलित लोक जीवन में शैव पूजा पद्धति की बात है इसका संबंध द्वैत पाशुपत सम्प्रदाय से संबंध रहा होगा। बलजिन्नाथ पण्डित के अनुसार आचार्य सोमानंद की दृष्टि में अद्वैत शैव दर्शन एक अति प्राचीन दर्शन है।आगम शास्त्रों के अनुसार युग युग में इस दर्शन की विद्या का आविर्भाव,तिरोभाव और पुनः आविर्भाव होता रहा है। यह विद्या प्राचीन काल में ऋषियों के पास थी। वे जनसाधारण में इसे न चलाते हुए केवल योग्य अधिकारियों को ही इसकी दीक्षा देते रहे (श्री: कश्मीर शैव दर्शन, पृ 16)।
यहाँ हम शैव दर्शन के उद्गम और विकास के अलग अलग चरणों में न जाते हुए कश्मीर के लोकमानस में यह भाव विशेष एक अविच्छिन्न चेतना के रूप में कैसे पोषित, पल्ल्वित और व्यवहार में रहा इस ओर ध्यान देंगे।
लोकमानस ने शिव और शक्ति को कैसे अभिन्न मानकर व्यक्ति, परिवार,समाज और सांस्कृतिक स्तर पर उस अभेद को जिया ,इसकी लोक संस्कृतिपरक अभिव्यक्तियां रोचक हैं ।कश्मीरी मुहावरे, पर्व,विवाह यज्ञोपवीत संबंधी लोकगायन तथा पारंपरिक संगीत, लोक नृत्य ,स्थापत्य,चित्रकला, मूर्तिकला , तंत्र, यंत्र और मंत्र आदि से जुड़े प्रतीक, यहाँ तक कि असंख्य तीर्थों के उपलब्ध स्थानीय महात्म्य भी इस अध्ययन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं ।
पारंपरिक कश्मीरी (भट्टों के) लोक जीवन की आत्मा शिव हैं।आचार्य अभिनवगुप्त 'भैरव- स्तोत्र' में 'त्वं च महेश सदैव ममात्मा' कहते हैं अर्थात् हे महेश, तुम मेरी आत्मा हो। यहाँ आचार्य अभिनवगुप्त के 'मैं ' को समष्टिगत 'मैं' के रूप में लिया जाए। शैव दर्शन कश्मीर के लोक जीवन की प्राणवायु है।
शिव और शक्ति में इस अद्वय रूप को देखते हुए तथा सृष्टि के चर-अचर में शिव चैतन्य की व्याप्ति के बोध से यह बात सहज ही समझ आती है कि क्यों कश्मीर शैव दर्शन संन्यास के प्रति उदासीन है।
यहाँ व्यक्ति को गृहस्थ में संन्यासी की तरह जीने के लिए शिव एक आदर्श रहा है। शिव की जो कल्पना गृहस्थ रूप में की गयी है यहाँ उसके प्रति अधिक लगाव दिखता है।शिव सदगृहस्थ हैं।उनका जगत में रहकर भी जगत से भिन्न होना ,उन्हें असंग्रही और विदेह स्वरूप प्रदान करता है।परिवार के सदस्यों की अलग अलग प्रवृत्तियाँ और स्वभाव को शिव समन्वित करते हैं।यहाँ विरुद्धों का अद्भुत सामंजस्य है।शिव फिर भी अलिप्त रहते हैं। लिप्ति में अलिप्ति के इस सिद्धांत ने ही कश्मीरियों को संन्यास से दूर रखा लगता है।
संन्यास यानी घर-संसार छोड़कर ईश्वर की खोज में जंगल जंगल भटकना,तपस्या करना। विरले ही किसी ने कभी किसी कश्मीरी संन्यासी को देखा होगा। यहाँ परंपरा से 'भोग मोक्ष सामरस्य' का सिद्धांत व्यवहार में रहा है।इसी प्रकार जगत्जननी शक्ति भी शिव के साथ परिणय-सूत्र में बँधती है।कश्मीरी शाक्तग्रन्थ ‘पंचस्तवी’ की एक स्तुति की यह पंक्ति देखें :
“विवाहाज्जायासीत्यहह चरितं वेत्ति तव का:”
इसी तरह शिव भी अपने साथ ही छुप्पम छुप्पी का खेल खेलते हैं ।संत
कवयित्री रूपभवानी(1621 -1721 ई०) अपने एक वाक् में शिव की इस लीला को इस तरह कहती हैं :
रिवान पानॅ तॅ
निवान टॅख।
नाना प्रकार्य
गिन्दान पानॅ
रिन्दान पानॅ तॅ
ह्यवान पथ ।।”
अर्थात्
रोता वह स्वयं ही , दौड़ता स्वयं ही
वापस।
नाना खेल खेलता वह
रहता स्वयं ही
यह जगत तो तत्त्वतः शिव का ही प्रसार है जिसे 'सकलं जगद्रूपं ' कहा गया है ।इसलिए
कहाँ भागना और किससे भागना ! यहाँ जीवन और संसार के प्रति
सकारात्मक रुख अपनाया गया है।स्वछंदतंत्र (4/313) के अनुसार यह मन
जहाँ कहीं भी जाए वह सब शिव ही शिव है :
यत्र यत्र मनो याति ज्ञेयं तत्रैव चिन्तयेत् ।
चलित्वा यास्यते कुत्रं सर्वं शिवमयं यतः।।
यह प्रत्यभिज्ञा के बोध होने और उसे आत्मसात कर जीने की आधार भूमि है।अतः संन्यास किससे? अब इस बोध को लोक व्यवहार की दृष्टि से देखें तो शिव रूप एक सामान्य पुरुष और शक्ति रूप एक सामान्य स्त्री विवाह सूत्र में बंधने के बाद पराशक्ति की अवस्था यानी अभेद को प्राप्त होते हैं ।यह वैचारिक दृष्टि से अर्धनारीश्वर की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि भी है।
शंकरगौरीश्वर मंदिर (वर्तमान पटन) के भव्य अवशेषों में कई खंडित देवप्रतिमाओं के साक्ष्य से वह अर्धनारीश्वर को समर्पित मंदिर लगता है। इस दार्शनिक समानता के आधार पर कश्मीर के इतिहास को खंगालें तो,अपवाद छोड़कर, हम कश्मीर की स्त्री की समाज में लगभग एक आदर्श स्थिति पाते हैं।वह स्वयं में स्वातंत्र्य शक्ति और इच्छा शक्ति स्वरूपा है। विस्तार भय से यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि कश्मीरी (भट्टों के ) लोकजीवन में शेष भारत में पाये जाने वाले जातिभेद के न होने या उत्तरोत्तर कम होकर लगभग शून्य होने की पृष्ठभूमि यह भी रही होगी।
लोक मान्यता है कि विवाह सूत्र में बंधने पर दुल्हा न केवल शक्तिसंपन्न होता है,बल्कि उसे अपने शिव होने का भी बोध हो जाता है।उसे अपना मूल स्वरूप पहचान में आता है। वर को इसीलिए कश्मीरी भाषा में 'माहराज़ॅ' यानी महाराजा और कन्या को 'माहरेन्य' अर्थात् महारानी कहते हैं ।यह शिव और पार्वती को सर्वोच्च भौतिक परमपद वाले रूपक में देखने की परंपरा है।
कहा जाता है कि यह शक्ति रूप (अर्धांगिणी) शिव (पति) को ज्ञान का उपदेश देती थीं । 'विज्ञान भैरव' की भूमिका में व्रजवल्लभ द्विवेदी शक्ति तत्त्व को परम तत्त्व के रूप में उसकी भूमिका को इस तरह व्याख्यायित करते हैं, ''जैसे दीपक या सूर्य के प्रकाश से हमको दिशाओं का बोध होता है,उसी तरह से शक्ति से शिव का ज्ञान होता है।'' दूसरे शब्दों में व्यावहारिक स्तर पर गार्हस्थ जीवन में शक्ति स्वरूपा पत्नी से शिव स्वरूप पति की इयत्ता है।
।।शाक्त परम्परा का संदर्भ ।।
कश्मीर में प्रचलित शाक्त विमर्श भी शैव विमर्श की तरह ही प्राचीनकालिक है।यहाँ पुरुष के स्थान पर स्त्री की सत्ता का वर्चस्व है।इस विमर्श में देवी ही पराशक्ति सर्वशक्तिमान और सकलजननी हैं।इसलिए देवी का महात्म्य है।शक्ति उपासना की परम्परा है।देवी के हाथ में शिव परिवार की बागडोर है।आचार्य अभिनवगुप्त ने परमार्थसार’ में इस पर प्रकाश डाला है।शक्ति के बिना शिव शव है। शिव में इकार शक्ति का वाचक है।
न शिव: शक्ति रहितो न शक्ति: शिव वर्जित:।।
इसी आशय का एक स्तुति श्लोक कश्मीर
में प्रचलित शाक्त ग्रंथ 'पंचस्तवी'(4/9) में भी पाया जाता है
चर्माम्बर च शवभस्मविलेपनं च
भिक्षाटनं च नटनं च परेतभूमौ।
वेतालसंहित परिग्रहता च शम्भौ:
शोभां बिभर्ति गिरिजे तव साहचर्यात्।।
अर्थात् हे गिरिजे,यह चर्माम्बर धारी शम्भु जो श्मशान वासी है, जिसने( तन-बदन पर) शवों का भस्म मला है, जो भिक्षा माँग कर खाता है और वेतालों के बीच रहता है, यह आपका साहचर्य है जिससे इसकी शोभा है।अन्यथा इसको पूछता कौन !
यह शाक्त दर्शन का ही प्रभाव कहा जाएगा कि मातृसत्ताक समाज सहज ही सदियों तक फलता फूलता रहा ।यह यों ही नहीं है कि कश्मीरी भट्टों के दैनन्दिन कसमों में ‘दीवी पथ’ या ’दीवी हिंज द्रिय’ अर्थात् देवी की सौगंध सर्व प्रचलित रही है।
इसी तरह शैव दृष्टि में शिव की सभी ऊर्जाएं शक्ति के ही रूप हैं । इस बात को अर्धनारीश्वर के सिद्धांत से मिलाकर भी देखा जा सकता है।एक प्रचलित कश्मीरी मुहावरे में गृहिणी को 'ब्रान्द कॅन्य' अर्थात् घर की ड्योढी का पायदान अर्थात् 'मूलाधारिणी' यों ही नहीं कहा गया है।यह पायदान ढंग का हो तो क्या बात है ।
लोकमान्यताओं और व्यवहार में हम रेखांकित कर सकते हैं कि कैसे शाक्त और शैव दर्शन की बारीकियाँ अलग अलग स्तर पर कश्मीर की जीवन शैली में समाहित रही हैं।अर्थात् शक्ति शिव से अलग नहीं ।वह उसकी क्रिया है ,इच्छा है ,ज्ञान है। तांत्रिक पद्धति में वह शिव की चित्त शक्ति और आनंद शक्ति भी बतायी गयी हैं ।
कश्मीर शैव दर्शन में शिव ज्ञान और क्रिया रूप दोनों एकसाथ है।दोनों में अभेद है जो शिव और शक्ति के रूप में विद्यमान रहता है।सांख्य में पुरुष केवल चैतन्य रूप है और वेदांत में तो निर्गुणस्वरूप ब्रह्म शुद्ध ज्ञान है।
।। कार्य कलाप में शिव ।।
पारंपरिक कश्मीरी (पंडितों की) जीवन-शैली में शिव और शक्ति विमर्श की एक अहम भूमिका रही है।हज़ारों वर्ष की संस्कृति उससे प्रभावित मिलती है।यहाँ गर्माधान से अंत्येष्टि तक शिव किसी न किसी रूप में अपनी उपस्थिति से हमें अवगत कराते हैं ।जन्म के देवता 'हुर्यराज़' अर्थात् 'हर राज' शिव है। जन्मदिन पर इसकी पूजा जन्मोत्सव देवता के रूप में की जाती है।
प्राकृतिक आपदा आने पर विशेषकर भूकंप आने पर बुजुर्गों के मुँह से स्वतः 'ओम नम: शिवाय' निकलता था।इसी तरह ‘कनवाम’( कान में हीने वाली ‘गूँ’की तीव्र ध्वनि) पर ‘ओम नम: शिवाय’ तथा छींक आने पर बुज़ुर्ग 'सत् सदाशिव' बोलते ।
यदि किसी ने विश्वास दिलाना हो कि उसने कुछ नहीं खाया है तो वह यदि 'शव निर्माल' (सं. शिव निर्माल्य) की दुहाई देगा तो कोई सन्देह नहीं करेगा। शिव निर्माल्य कहने से बढ़कर तो कोई प्रमाण नहीं, सौगंध नहीं। मान्यता है कि शिव का प्रसाद शिव निर्माल्य मानकर नहीं खाते।
श्रीनगर में मेरे बचपन में किसी को श्मशान ले जाने की अशुभ कामनापरक एक कोसना होता था- "न्यूमखॅ शवराज़दानुन" अर्थात् ऐसा हो कि मैं तुझे 'शव राज़दान' (श्मशानवासी शिव का स्थानीय नामकरण ।यहाँ शमशान भूमि से अभिप्राय ) के यहाँ ले जाऊँ ! या यह कोसना देखें, ' कोरमयॅ शिव शिव शम्भू' अर्थात् तेरी शवयात्रा निकले और मैं तेरे पीछे पीछे 'शिव शिव शम्भौ' पढ़ूं ! किसी नवयुवक को मूर्ख बनाने के लिए भी कई बार कहा जाता कि एस. आर. कम्पनी अर्थात् शवराज़दान कंपनी में आवेदन क्यों नहीं देते।
।।मूर्तिशिल्प और वास्तुकला ।।
कश्मीर में मध्यकालीन शासकों की धार्मिक बर्बरता के चलते देवालयों और देवमूर्तियों के ताबड़तोड़ विध्वंस के बाद भी शेष उपलब्ध और संरक्षित खंडित-अखंडित शिव मूर्तियाँ शिल्प और सृजनकाल की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। जटाधारी सुदर्शन शिव हैं ( हाल ही में हारवन,श्रीनगर में 23 सितंबर 2017 को उत्खनन में छठी शताब्दी का ऐसा ही एकमुखी शिवलिंग मिला है )।बारामुला में कोई दस फीट ऊँचा एक प्राचीन विशालकाय शिवलिंग आज भी एक पेड़ के नीचे पड़ा है।हमें अक्सर प्राचीन देवालयों में त्रिभुज शीर्ष वाले आयात प्रस्तर पैनल में अंकित शिव और शक्ति के या भैरव-भैरवी की मनोरम आकृतियाँ देखने को मिलती हैं।
श्रीनगर स्थित संग्रहालय में ऊर्ध्वलिंग शिव सहित अनेक बहुमूल्य शिव मूर्तियाँ संग्रहीत हैं।शैव या शाक्त दर्शन की पृष्ठभूमि में शिव और कहीं कहीं शिव शक्ति की संयुक्त प्रतिमाएँ,उनकी अलग-अलग भाव-भंगिमा, क़द काठी अभिभूत करती हैं।
जहाँ तक कश्मीर की प्राचीन वास्तु-कला का प्रश्न है, ‘एन्शिएंट मानुमेंट्स अॉफ कश्मीर’ के यशस्वी लेखक राम चंद्र काक ने इसका तीन चरणों में विशद अध्ययन किया है। कुषाणकालीन तथा बौद्ध वास्तुकला इतर हम भूतेश्वर ( वांगथ ), अवंतीश्वर ( अवंतीपुर), शिवमंदिर (पान्द्रेठन), शिवमंदिर ( पायर ), गौरीशंकर( पटन), मामलेश्वर (पहलगाम) आदि शिवमंदिरों के स्थापत्य के तकनीकी पहलुओं की प्रसंगेतर बात न करके इनमें शिव विग्रहों की स्थापनादि से संबंधित पहलुओं पर ध्यान देंगे। हालाँकि इन प्राचीन मंदिरों की तिकोनी छतों को पिरामिडों जैसी बताया जाता है जो मुझे त्रिकदर्शन के त्रिपुर या इच्छा, ज्ञान और क्रिया के त्रिभुज लगते हैं।
खंभों की श्रेणियों और कोष्ठात्मक नक़्शे (सेल्यूलर लेआउट) वाले इन
देवालयों में हम यहाँ पुलवामा स्थित पायर गाँव की एक टेकडी पर साबुत बचे प्राचीन
शिवमंदिर की बात करते हैं। स्थापत्य और मूर्तिकला की दृष्टि से यह अद्वितीय मंदिर
मात्र दस विशाल पाषाणों से निर्मित है। चौतरफ़ा प्रदक्षिणा (पेडिमेंट )के पूर्वी
तिपति (ट्रिफायल) में चटाई पर चौकड़ी मारकर लकुलीश बैठे दिखाए गए
हैं।पश्चिमी तिपति में छह बाँहों वाले नटराज हैं जो एक डोल वादक और एक वंशीवादक के
संगीत पर नृत्यरत हैं।उत्तरी तिपति में तीनमुखी शिव हैं।दक्षिणी तिपति में गजासुर
के संहारक भैरवरुप शिव हैं और गर्भ-गृह में शिव और शक्ति हैं।
पायर के ऐतिहासिक मंदिर के गर्भ-गृह में शिवशक्ति की गरिमायुक्त
अवस्थिति से तत्कालीन कश्मीरी समाज-जीवन में प्रचलित शैव और शाक्त आस्था की
पुरातात्विक अभिव्यक्ति गढ़ी हुई मिलती है।
।। स्तुति,महाकाव्य और लोककथाएँ ।।
कश्मीर चूँकि शैव और शाक्त संप्रदाय की मुख्यभूमि रही है इसलिए यहाँ इन विमर्शों से संबंधित परंपराओं के अनेक दार्शनिक ग्रंथ और स्तुतिकाव्य रचे गए।
डा. वेदकुमारी ने ‘कश्मीर का संस्कृत साहित्य को योगदान’ में इस स्तुतिकाव्य परम्परा का विशद अध्ययन किया है। उनके अनुसार प्रत्यभिज्ञादर्शन के अनेक ग्रन्थों के अलावा “वहाँ भक्त कवियों की लेखनी से प्रसूत शिव तथा शक्ति की श्लाघनीय स्तुतियां भी मिलती हैं। उत्पलदेव की शिवस्तोत्रावली, अभिनवगुप्त का ईश्वर-स्तोत्र या भैरवस्तोत्र, कल्हण का अर्धनारीश्वर स्तोत्र, लोष्टक का दीनाक्रन्दन स्तोत्र, जगद्धरभट्ट की स्तुतिकुसुमांजलि, आनन्दवर्धन का देवीशतक तथा अवतार का ईश्वरशतक उल्लेखनीय हैं।”
जहाँ तक यहाँ उपलब्ध महाकाव्यों की बात है हमारे सामने शिवस्वामी , मंख , बिल्हण, जयानक ,भट्टभीम, राजानक रत्नाकर की कृतियाँ हैं जिनका डा.वेदकुमारी ने विस्तार से व्याख्या की है। यहाँ हमारे लिए दो ही महाकाव्य राजानक रत्नाकर का ‘हरविजय’ और मंख का ‘श्रीकण्ठचरित’ उल्लेखनीय हैं जिनके नायक शिव हैं। ‘हरविजय’ में अंधकासुर और ‘श्रीकण्ठचरित’ में त्रिपुरासुर को मारकर शिव उत्पीडित जनता को कष्टों से मुक्ति दिलाते हैं।
अन्य शिवेतर महाकाव्यों में भी कश्मीरी कवि किसी न किसी बहाने शिव को ले ही आते हैं।कल्हण का पूर्ववर्ती कवि जल्हण अपने ऐतिहासिक महाकाव्य “सोमपाल विलास” में ईश्वर सूक्ति रच डालते हैं।बिल्हण (11वीं शती) के “ विक्रमांकदेवचरितं ” में नायक विक्रमांक को अपने भाई के साथ युद्ध करने की प्रेरणा देने वाले शिव बताए गए हैं। कल्हण राजतरंगिणी में मंगलाचरण स्वरूप अर्धनारीश्वर स्तोत्र की रचना करते हैं। जयानक (12वीं शती) “पृथ्वीराजविजय” के एक सर्ग में पुष्कर स्थित अजगन्ध महादेव का वर्णन चाव से करते हैं।इसी तरह कल्हण के परवर्ती इतिहासकार शुक अपनी राजतरंगिणी में मंगलाचरण में शिव और भैरव की स्तुति करते हैं।
किंवदन्ती है कि गुणाढ्य की पैशाची भाषा में रचित ‘बृहत्कथा’ की कथाएँ शिव ने पार्वती को सुनाई थीं।इसी बृह्त्कथा का संस्कृत रूपांतर ग्यारहवीं शती में सोमदेव ने किया और तत्कालीन कश्मीर नरेश अनंत की महारानी सूर्यमती को सुनाईं।
दूसरी श्रेणी में मैं इस शैली के वे चित्र रखना पसंद करूँगा जिनमें स्पष्ट रूप से उमा या पार्वती अधिष्ठात्री हैं। वह आकीट ब्रह्माण्ड जननी हैं। स्वयं में परिपूर्ण।शिव की सत्ता भी उन्हीं से है और इस बात के आनंद में शिव मस्त हैं।
उदाहरण के लिए एक प्रसिद्ध पेंटिंग है जिसमें खुले आकाश के नीचे संभव: कैलास पर एक राजसी मंडप पर दाहिने कोने में क़ालीन जैसे किसी बिछोने पर एक षटकोणीय सुसज्जित तख़्त पर देवी विराजमान हैं। उनकी चार भुजाएँ हैं। वह एक विशाल कमल के फूल पर एक छत्र के नीचे पद्मासन में बैठी हैं। सिर पर सोने का मुकुट है। हिमाच्छादित पर्वतमाला में अनेक देवी देवता हैं। आकाश मार्ग से भी हाथी ,हंस, अश्व आदि पर आरूढ़ कोई चार देवता आए हुए हैं। बीच में हरित स्थली पर दो बाँहों वाले शिव उल्लास में नृत्य कर रहें हैं। ताण्डव नहीं,जैसे पार्वती का लास्य कर रहे हों। तीनों ओर तमाम देवी देवता बैठे हुए इस अलौकिक परिघटना के साक्षी बने हुए हैं। सरस्वती वीणा बजा रही हैं, विष्णु पखावज और नारद सितार वादन कर रहे हैं। अधिष्ठात्री देवी की सभा में देवगण अभिभूत हैं।यह चित्र साफ़तौर से शाक्तमत से प्रेरित हैं।
चौथी श्रेणी में हम तंत्रशास्त्र और साधना की पृष्ठभूमि में बनाए गए भैरवरुप शिव के चित्रों को रख सकते हैं। जैसे स्वच्छंद भैरव,अमृतेश्वर भैरव,नन्दीकेश्वर भैरव,शीतलेश्वर भैरव,अमरीश्वर भैरव,बटुकराज भैरव आदि। इसी वर्ग में हम कश्मीर चित्रकला की विकसित वे आधुनिक तांत्रिक शैव पेंटिंग्स रख सकते हैं जो ग़ुलाम रसूल संतोष ने बनाई हैं।
इस चित्रशैली की एक विशेषता उसका सजीव रेखांकन, लय , गतिमयता और प्रकृति के साथ संतुलन तो है ही, देवी देवताओं की भाव प्रवण आँखें, लयमान हाथ पैर, उठी हुई तोरणी भौंहें, सहज और सौम्य रंग और फूलपत्तीदार किनारी।,
उनसे लगभग दो सौ साल पहले तेरहवीं शताब्दी में शारंगदेव ने कश्मीर से देवगिरी जाकर भारत का अद्वितीय संगीतशास्त्रीय ग्रन्थ “ संगीतरत्नाकर” लिखा जो हिन्दुस्तानी और कर्नाटक संगीत द्वारा मान्य है।
प्रख्यात संतूरवादक पं. भजन सोपोरी के अनुसार चौदहवीं शताब्दी में कश्मीर में मुस्लिम शासन की शुरुआत तो हुई, लेकिन संगीत की पारम्परिक गायन शैलियाँ जो निर्बाध बनी रहीं।यह मुख्य रूप से पारम्परिक शैव गायन की विधा रही है। सुर, लय, ताल आदि से बनने वाला इसका विधान ,इसकी ‘मैलोडी’ यथावत पारम्परिक है। इसी प्राचीन शैव गायन शैली में छकरी, रोफ ,दोनों हिन्दु और मुस्लिम ‘वनवुन’(विवाहादि पर गाया जाने वाला पारम्परिक गायन), लीलाएँ और यहाँ तक कि सोफियाना संगीत भी गाया प्रचलन में है।
"आठवीं-नवमी शताब्दी में वसुगुप्त द्वारा प्रतिपादित इस दर्शन -निकाय ने ग्यारहवीं शती में अभिनवगुप्त के रूप में अपना शीर्ष व्याख्याता पाया। चौदहवीं शती तक उसका प्रभाव-वृत्त इतना व्यापक हो गया था कि वह लोक-साधारण की जीवन दृष्टि का एक महत्वपूर्ण अंग बन गया।"
हम इसी पृष्ठभूमि में ललेश्वरी और उसके काव्य को देखते हैं । वह संस्कृत की जगह तत्कालीन लोक-साधारण की भाषा में शिव को भी लोक-साधारण के स्तर पर खड़ा करती हैं :
असे पोंदे ज़्वसे ज़ामे ,
वुहुर्य वरियस नोनुय आसे,
अर्थात् यह शिव ही है जो तुम्हारे भीतर हँसता है, छींकता हैं, अंगडाई लेता है, खाँसता है , तीर्थों पर स्नान
करता है, निर्वस्त्र रहता है। वह तुम्हारे इतना पास (भीतर) है, उसे पहचान लो। एक
अन्य 'वाख' में वह कहती हैं :
शिव छुय ज़ाॅव्युल ज़ाल वाहराॅविथ,
ज़िन्दु नय वुछहन अदॅ कति मरिथ
अर्थात् यह शिव अपने विस्तार का जाल फैलाए बैठा है। हरेक के शरीर में रचा बसा है।तू यदि जीते जी इसे नहीं देख सकेगा, तो क्या मर कर देखेगा ? गहन विचार करके उसे पा ले।लल्द्यद के 'वाखों' में उसकी साधना के सोपान हैं,बाह्याडंरों के प्रति फटकार है,शिव से एकाकार की ललक, उसके स्वरूप, स्वभाव और उसकी सत्ता के लक्षण हैं जीवन की निरंतरता है, आशावादिता है, तत्कालीन समय और समाज के संकटों का निदान भी शिव में ही देखती हैं ।
कश्मीरी काव्य में लल्द्यद ने शिव को जो केंद्रीयता दी उसका दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। यद्यपि उन्नीसवीं शताब्दी में लीला कवि परमानंद ने 'शिवलग्न' और 'अमरनाथ यात्रा ' तथा कृष्ण जु राज़दान ने भी 'शिव लग्न ' जैसे काव्य रचे हैं ।इन लीला कवियों ने मुख्य रूप से कृष्ण भक्ति काव्य रचा है।
शिवरात्रि को कश्मीर में 'हेरथ' अर्थात् हर रात्रि कहते हैं । इस पर्व को आज भी घर घर में अनिवार्य रूप से अन्य दार्शनिक व्याख्याओं और तांत्रिक पद्धतियों के अतिरिक्त शिव और पार्वती के विवाह के रूप में मनाया जाता है। घर मुहल्ले में उत्सवधर्मिता का वातावरण का निर्माण होता है। शायद ही देश में इस ढंग से घरों में शिव पार्वती का पारंपरिक विवाह कहीं मनाया जाता हो। यह अनुष्ठान पखवाड़े भर चलता है। एक ज़माने में यह तेईस दिन तक चलता था। नये कपड़े या धुले- तहाए कपड़े पहनना, हर शाम बच्चों का आपस में कोडियां से खेलना। अलग अलग दिनों के लिए अलग अलग पकवान बनाना।
प्रतीक रूप में बटुकनाथ भैरव, शिव, पार्वती, भैरवगण आदि के धुले हुए कलश घर के किसी कमरे या रसोई में बिठाए जाते हैं। उन्हें सिन्दूर ,मौली, अभ्रक और बेलपत्रों सहित फूलों से सजाया जाता है। ये सभी कलश वटुक भैरव सहित शिव बारातियों के प्रतीक होते हैं । इनमें जल भरा जाता है। फिर उनमें पूजा के अखरोट डाले जाते हैं। भोग चढ़ाया जाता है। तमाम तरह के बारातियों के सत्कार स्वरूप अपनी अपनी रीत के अनुसार सामिष निरामिष सभी तरह के पकवानों का भोग होता है और प्रतिदिन पूजा के बाद उनका जल बदला जाता है।
वटुक भैरव की पूजा से जुड़े होने से इसके समूचे अनुष्ठान को 'वटुक बरुन' अर्थात् बटुक के कलशों को ( फल फूलादि से) भरना,उन्हें सजाना,उनकी पूजा करना। इसीलिए कश्मीर में शिवरात्रि-पूजा और उसकी सामग्री को 'वटुक पूजा' तथा वटुक मसाला कहते हैं । बटुकनाथ भैरव की पूजा और उससे जुड़े अनुष्ठान एक नया अनुभव संसार खोलते हैं । फाल्गुन कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक सभी दिनों के साथ 'हुर्य' शब्द लगता है। जैसे हुर्य प्रतिपदा, हुर्य द्वितीया, हुर्य तृतीया ,हुर्य चतुर्थी, हुर्य पंचमी और हुर्य षष्टी।
'हुर्य' शब्द के अर्थ के बारे में मतैक्य नहीं है। इसका शब्दार्थ 'हर' ,'होरा'(समय), 'लेपन,''गायन' आदि बताया जाता है । जो भी हो, 'हेरथ' (शिवरात्रि), 'हर रात्रि' के साथ ध्वनि साम्य के चलते इस पद को 'हर' का ही अपभ्रंश 'हुर्य' तथा 'होरा' माना जाता है।
इस महीने के पहले छः दिन घर की सफाई-धुलाई के लिए तय होते हैं । फिर होरा सप्तमी, होरा अष्टमी और होरा नवमी शारिका सहित स्थानीय अधिष्ठात्री देवियों की पूजा-अर्चना के लिए होते हैं ।
इसमें 'होरा अष्टमी' का विशेष महत्व है। होरा दशमी को 'द्यार दहम' कहते हैं । इस दिन विवाहित बेटियाँ मायके आती हैं और अपनी ससुराल में आगामी तेरस को शिव और पार्वती के विवाहोत्सव के लिए प्रतीक स्वरूप धनादि का शगन ले जाती हैं । इसीलिए इसे 'द्यार दहम' ( धन दशमी) कहते हैं ।एकादशी के दिन मछली बनती है। इसलिए इसे 'गाड़ काह' अर्थात् मछली-एकादशी कहते हैं ।
द्वादशी को सूर्यास्त के बाद वागुर नामक भैरव यह संदेश लेकर घर चले आते हैं कि कल 'हेरथ-त्रोवाह' यानी हेरथ की तेरस को शिव और पार्वती आपके यहाँ पधार रहे हैं। वागुर स्वरूप मांगलिक कलश की आरती उतारी जाती है। उसका सत्कार किया जाता है। तेरस की शाम को शिव पार्वती पधारते हैं और अर्ध रात्रि को उनका मिलन होता है।उनके तथा उनके साथ आए शिवगणों के छोटे बड़े कलशों में सामिष निरामिष पकवान का भोग चढ़ता है।
नीलमत पुराण के अनुसार शिव चूँकि भूतेश्वर हैं, उनका पिशाचों और राक्षसों के साथ भी निकट का संबंध है। इसलिए दूर अतीत में कश्मीर में पिशाचाधिपति निकुम्भ भी शिव की पूजा करते बताए गए हैं । इसलिए सामिष भोग की परंपरा भी चली होगी जो कालांतर में तांत्रिक पूजा अनुष्ठान का हिस्सा बनी होगी। अमावस्या के दिन शिव और पार्वती की घर से विदाई होती है।मांगलिक वटुक कलश के भीगे अखरोट और चावल के आटे को रोटी का प्रसाद बंटता है।
ऐसा लगता है कि गणपति, इंद्र, दक्ष प्रजापति, ब्रह्मा, विष्णु जैसे अनेक
पौराणिक देवताऔर दशरथ,राजा जनक, वासुदेव,सरस्वती, महाराज्ञा, शारिका, महालक्ष्मी, कौशल्या ,मंगलादेवी और नन्दिकेश्वर भैरव आदि अनेक मिथकीय पात्र हमारे आपके
इस विवाह उत्सव में यहाँ वहाँ विराजमान हैं । महिलाएँ सम्वेत किन्तु मंद स्वर में 'वनवुन' गाती हैं -
" दछ प्रजापतनि तस ब्रुबारे,
ग्वडॅ आव परमीश्वर तस ब्रुब्रारे,
ड्यकस प्यठ च़ंद्रम तस वुम ब्रारे।
हारे छु कन्या संस्कार।"
अर्थात् दक्ष प्रजापति की मैना सी बेटी का आज विवाह है,हमारी इस चिड़िया सी प्यारी बेटी का वरण करने त्रिनेत्रधारी भस्मांबर अंगी परमेश्वर आए हैं । उसके भाल पर चंद्रमा शोभायमान है। आज हमारी बेटी का विवाह है।
विवाह के दौरान 'पोषपूजा' यानी पुष्प अर्चना का एक अवसर विशेष आता है। मंडप पर बैठे वर और वधु के सिर पर लाल रंग का शाॅल ओढा दिया जाता है और उन्हें उस समय साक्षात् शिव और पार्वती मानकर उनपर मंत्रोच्चार के साथ पुष्पों की वर्षा की जातीय है। यह एक श्रद्धा से विगलित कर देने वाली घडी होती है।
उधर वनवुन का समूहगान चलता है-
"बाव पम्पोष फल्य प्रेमय सरसुय
अर्थात् प्रेम सरोवर में भावों के कमल खिले हैं ।आज शिव शंकर की 'पोषपूज़ा' (पुष्पार्चन) है। यह 'पोषपूज़ा' का वनवुन (गान)
धीमे धीमे स्वर में पृष्ठभूमि में अंत तक चलता रहता है। इस वनवुन (मंगलगान) में
दुल्हे के रूप में शिव को रामेश्वर, हरीहर, नागेश्वर, अमरीश्वर (अमरनाथ)
जटाधर, विजयेश्वर, विश्वम्भर आदि अनेक नामों से संबोधित कर उसके ऊपर फूलों चढ़ाए जाते
हैं । साथ में महिलाएँ वनवुन गाते हुए कश्मीर के लगभग सभी प्राचीन शिव
तीर्थों के पुण्य फलों की कामना करती हैं । वे 'पोषपूजा' की समाप्ति पर गाती हैं :
"सर्व तीर्थन हुंद फल छु कश्मीरसुय
मो'कतीश्वर सुय छे पोषपूज़ा ।"
अर्थात् सब तीर्थों के जितना पुण्यफल अकेले कश्मीर (तीर्थ )का है। आज उसके अधिष्ठाता मुक्तेश्वर शिव की आज पुष्प-पूजा है।
यह कश्मीरी लोक मानस का स्थानिकता बोध है जो शिव को सोमानंद,उत्पलदेव और अभिनवगुप्त जैसे धुरंधर आचार्यों की गूढ रहस्यात्मकता से निकाल कर उसे समाज जीवन के सामान्य स्तर पर लाकर उसकी चेतना को हर स्तर पर व्यवहार में लाती रही है।
(संलग्न मूर्ति शिल्पों और शैव चित्रों के लिए विनायक राज़दान की वॉल तथा अन्य साइट्स का आभार)
(यह आलेख कालिदास अकादमी, उज्जैन में आयोजित अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में हाल ही में पढ़ा गया)