संस्मरण || घाव जो कभी नहीं भरे || By Dr. Agnishekhar || LIVE IMAGE

 

दिल्ली में एकबार कश्मीर पर एक परिचर्चा के दौरान जब मेरा परिचय निर्वासन में जी रहे कवि और नागरिक के रूप में दिया गया और मुझसे मेरा पक्ष रखने से पहले यह भी अपेक्षा की गयी कि मैं निर्वासन-चेतना के बारे में कुछ बताऊं तो मैंने कहा था : 

●'निर्वासन एक अदीख रिसते  हुए घाव की चेतना है जो पीढ़ियों तक एक स्मृति की तरह यात्रा करती है और भविष्य के पुरातत्व में दर्ज होती है। निर्वासन-चेतना का साहित्य स्मृतियों को लूट लिए जाने या उन्हें बदल दिए जाने अथवा उन्हें अनदेखा किए जाने के विरुद्ध एक प्रतिबद्ध साँस्कृतिक-कर्म है।' 

इस सेमिनार में देश-विदेश के अनेक प्रतिभागी आए हुए थे।मुझे याद है मेरे वक्तव्य के कुछ बिन्दुओं पर एक अनजान प्रतिभागी सज्जन अनुमोदन में सिर हिलाए जा रहे थे।मैं उन्हें जानता नहीं था। 

परिचर्चा के मध्यांतर के दौरान जब हम चाय पीने के लिए बाहर परिसर में निकले तो मेरी दृष्टि उस सज्जन पर पड़ी।वह भी हाथ में चाय का कप लिए मुझे ही निहार रहे थे। 

मैं उनके पास गया। 

●" आज आपकी बातों से मुझे अपने वालिद की तकलीफ समझ आई।बहुत शुक्रिया आपका.." उन्होंने सम्मान के साथ मुझे पास की एक खाली मेज़ पर थोड़ी देर बैठने के लाए कहा। 

  " आपका परिचय ?" मैंने पूछा। 

" मुझे अली विलायती कहते हैं..मैं आज़ाद कश्मीर का हूँ और फिलवक्त लंदन में रहता हूँ.."उन्होंने एक शालीनता के साथ कहा। 

कश्मीर के मुद्दे पर उनकी राजनीतिक संवेदनाएं किस तरफ थीं,यह उनके परिचय-सूत्र में मेरे लिए साफ था। परंतु मेरी उत्सुकता उनके वालिद की उस तकलीफ को जानने की थी जिसका कोई संबंध मेरे वक्तव्य के साथ था।मैंने उनसे थोड़ा विस्तार से बताने का निवेदन किया। 

वह बोले," बताता हूँ ..आपके बारे में जब पता चला कि आप जम्मू से आए हैं तो मेरी दिल की धड़कन बढ़ गयी ।मेरे वालिद भी जम्मू के बाशिन्दे थे और तकसीम के दौरान पाकिस्तान चले आए थे।" 


मैंने उन्हें ध्यान से देखा।उनकी आँखों में एक चमक तैर आई थी। 

" अभी कुछ साल पहले खुदा के प्यारे हो गये। मुझे अफसोस है कि मैं उनकी बरसों पुरानी तमन्ना  पूरी न कर सका" वह चाय का कप मेज़ पर रखते हुए आगे बोले," वह बहुत चाहते थे कि एकबार जम्मू जाकर उस तवी को देख आएं जिसके किनारों पर वह भैंसें चराया करते थे..और दूर पार से कभी किसी चरवाहे की आवाज़ में गायी जा रही बाखाँ सुनते। 

बहुत मर्म था उसकी बात में।फिर उसने आगे जो बात कही उसे सुनकर मैं चौंक गया।

 " जानते हैं, मैं आजकल तैरना सीख रहा हूँ।" उन्होंने धीरे से कहा और कहीं खो गये। 

    " जानते हैं क्यों ? मैं आपके जम्मू आकर उस तवी को छूना चाहता हूँ, उसमें तैरना चाहता हूँ जिसकी दर्दनाक याद में मेरे वालिद पाकिस्तान में रहते हुए  आँसू बहाया करते थे.." 

अली अदालती के उस मार्मिक प्रकरण से मैं भावुक हो गया।बाद में मैंने इससे प्रेरित एक कविता लिखी थी-' एक पाकिस्तानी दोस्त का आना '

उस रात ट्रेन से जम्मू लौटते हुए 

मैं इस घटना पर देर तक सोचता रहा।ऐसे अनेक प्रसंग याद हो आए थे जिनका संबंध सीधे इसी विभाजन की वेदना के  साथ था।


एकबार मैं वरिष्ठ डोगरी कवयित्री  पद्मा सचदेव के घर गया था।कश्मीरी विस्थापितों के प्रथम विश्व सम्मेलन में आमंत्रित करने के लिए।उन दिनों वह बंगाली मार्केट
, नई दिल्ली में रहती थीं। इस सम्मेलन में एक सत्र 'निर्वासन में कला और साहित्य' पर केंद्रित था जिसमें निर्मल वर्मा एक विशेष उपस्थिति के रूप में रहने वाले थे।
 

उस समय पद्मा सचदेव घर में नहीं थीं।मुझे उनके कलाकार पति सुरेन्दर सिंह जी ने उनके पास बैठने को कहा।जब तक पद्मा जी आईं सरदार जी ने प्रसंगवश मुझे लाहौर की यादों से सराबोर किया। 

●" अग्निशेखर जी,मैं छयालीस बरसों से यहाँ दिल्ली में हूँ। एकबार भी कभी दिल्ली का सपना नहीं देखा।जब देखा तब लाहौर ही देखा। बचपन की वो गलियाँ ही देखीं हैं लाहौर की जिनमें खेला हूँ, दौड़ा हूँ, विभाजन तक पला बड़ा हुआ हूँ..इसलिए पद्मा से ज़्यादा मैं आपके दर्द को महसूस कर सकता हूँ।" 

इतने में पद्मा जी भी आ गईं। बहुत खुश हुईं मुझे देखर। मैंने देखा सरदार जी लाहौर की यादों से अभी बाहर नहीं आए थे। 

उन्हें सहसा कुछ याद आया।

" हमारे एक रिश्तेदार एकबार लाहौर गये थे।किसी सिलसिले में।लाहौर में कहीं उनका पैतृक गाँव था।वह वहाँ जाना चाहते हुए भी नहीं गये।उनसे वहाँ आयोजकों ने कहा भी था कि चलिए आपको आपका गाँव दिखाने ले चलते हैं..तब उन्होंने उन्हें एक बड़ी बात कही थी, मैं घर नहीं पाकिस्तान आया हूँ.." 

प्रसंगवश ऐसी ही परंतु ज़रा भिन्न घटना मुझे फिल्म अभिनेता राज बब्बर ने भी सुनाई थी। तब मैं अंधेरी, मुंबई में कुछ दिनों के लिए उनके घर में रुका हुआ था। मेरी कहानी पर बनी फीचर फिल्म 'शीन' की शूटिंग के दौरान हम मित्र बन गये थे वो भी इतने आत्मीय कि उन्होंने मुझे तब मुंबई में होटल में रहने ही न दिया था। 

राज बब्बर एक बार जब किसी समारोह में शामिल होने के लिए लाहौर गये थे तो उन्हें भी आयोजकों ने कहा था कि बिरादर, चलिए आपको आपके गाँव जलालपुर जटाँ  ले चलते हैं जो यहाँ से दूर भी नहीं है। यह वर्ष 1995 की बात है।

राजजी ने मुझे ब्यौरेवार बताया था कि कैसे उन्हें समारोह में ही उनके पैतृक गाँव के ही कुछ लोगों ने सूचित किया था कि जलालपुर जटाँ में उनके घर और उसके आँगन में एक मस्जिद बनी है। 

राजजी ने कहा," शेखर जी, मैं अजीब पसोपेश में पड़ गया जाऊँ या न जाऊँ..फिर मैंने गाँव न जाने का फैसला करते हुए उनसे कहा , देखिए मैं मुंबई में हूँ या आज आपके बीच यहाँ हूँ, मुझे समझ में आ गया कि मैं जो कुछ भी हूँ या मेरी जो भी हस्ती है उसके पीछे उन दुआओं का ही असर है जो मेरे घर बनी उस मस्जिद में लोग नमाज़ पढ़ते हैं,

इबादत करते हैं।"कहकर राज बब्बर कुछ पल मेरे चेहरे पर उभरती प्रतिक्रिया को समझने की मंशा से सधी आँखों से देखते रहे। 

देश-विभाजन की घटनाओं को भुक्त भोगियों से सुनकर या लिखित रूप में पढ़कर आज भी तन-मन सिहर उठता है।अपनी मातृभूमि के रेशे-रेशे से जुड़े लोग कैसे अजनबीपन, अकेलेपन और सूनेपन से भर गये थे। 

बचपन में हम जम्मू के रानीबाग इलाके में रहते थे।वहाँ पड़ोस में विभाजन के दौरान मीरपुर ( पाकिस्तान) से भागकर आए चौदह- पंद्रह सिख परिवार  रहते थे।सबकी अपनी कहानियाँ थीं।अपने त्रासद अनुभव थे। 

मेरे लंगोटिए दोस्तों में एक सतनाम सिंह हुआ करता था।मेरा सहपाठी था तीसरी से सातवीं तक।मुझे उसके बापू, नाम सरदार बीरसिंह था,को देखकर अक्सर आश्चर्य होता था।उसके केश नहीं थे और वह बाहर आँगन में पेडों के नीचे बंधी भैंसों के पास जाकर सबकी नज़र बचाकर बीड़ी पिया करता था। उसके धूम्रपान करने और केशधारी न होने की वजह पूछने पर मेरा बालसखा सतनाम कुछ नहीं बोलता था। 

एकदिन सतनाम के बापू ने अपनी लोमहर्षक कहानी हमारे घर आकर मेरे पिता को सुनाई थी कि कैसे मीरपुर से भागते समय उनकी दो जवान बहनों को दंगाइयों का दल  पकड़कर अपने साथ ले गया था।कईयों को तो वहीं खेतों में ही तलवारों, कुल्हाडियों और लाठी-डंडों से मार गिराया था। युवा बीरसिंह को पकड़कर उनके बाल काट डाले थे।फिर उसे जम्मू के गुरुद्वारे में किसी संत जी ने केश न बढ़ाने का आदेश दिया था। 

बीरसिंह के लिए विभाजन ने ऐसा दर्दीला घाव दिया था कि वह अपनी नज़रों में भी एक अजनबी बन गया था।आस्था से सिख था,लेकिन केशधारी न होने से मोना लगता; जब मोनों की तरह धूम्रपान करता तो ग्लानि से भर जाता।एक ठंडा अकेलापन और एक सन्नाटा उससे उम्रभर चिपका रहा। 

मुझे याद है बीरसिंह ने पिता को अपने गाँव के या किसी अन्य गाँव के उस व्यक्ति की व्यथा सुनाई थी जो लोगों को घरबार छोड़कर भागते देखकर हर किसी के आँगन-आँगन जाकर पागलों की तरह दहाड़े मारता था और गाँव छोड़कर नहीं जाना चाहता था।जब गाँव खाली हो गया था तो वह एक पेड़ पर जा चढ़ा था और उसी पर दिनभर छिपा बैठा रहा।शाम को दूसरे गाँव के दंगाइयों ने उसे पेड़ पर छिपे बैठे देख लिया था।उसे पत्थर मार-मार कर पेड़ से गिरा कर अपने खेत में ही मार डाला था। 

रोंगटे खड़े हो जाते हैं इतने दशकों बाद आज भी उस असंगत और अमानवीय देश- विभाजन और उससे जुड़ी लोमहर्षक घटनाओं से जो टल सकती थीं..काश !











Dr. Agni Shekhar
Poet,Writer, Activist in Exile

सम्पर्क : बी-90/12, भवानीनगर, जानीपुर , जम्मू-180007

मोबाइल : 9697003775



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